Farida

Add To collaction

बुआजी की आँखे



बुआजी की आँखे



loveguru stargroup:
प्रद्युम्नसिंह नाम का एक राजा था। उसके पास एक हंस था। राजा उसे मोती चुगाया करता और बहुत लाड़-प्यार से उसका पालन किया करता। वह हंस नित्य प्रति सायंकाल राजा के महल से उड़कर कभी किसी दिशा में और कभी किसी दिशा में थोड़ा चक्कर काट आया करता।

   एक दिन वह हंस उड़ता हुआ दीवान जी की छत पर जा बैठा। उकी पुत्रवधु गर्भवती थी। उसने सुन रखा था कि गर्भावस्था में यदि किसी स्त्री को हंस का मांस खाने को मिल जाय तो उसकी होने वाली संतान अत्यंत मेधावी, तेजस्वी और भाग्यशाली होती है। अनायास ही छत पर हंस आया देखकर उसके मुंह में पानी भर आया। उसने हंस को पकड़ लिया ओर रसोईघर में ले जाकर उसे पकाकर खा गई। इस बात का पता न उसने अपनी सास को लगने दिया, न ससुर को और न पति को ही, क्योंकि उसे भय था कि अगर राजा को इस बात का सुराग लग गया तो बड़ा अनिष्ट हो जायगा।

   उधर जब रात होने पर हंस राजमहल में नहीं पहुंचा तो राजा-रानी को बहुत चिंता हुई। उनका मन आकुल-व्याकुल हो गया। चारों ओर उसकी खोज में आदमी दौड़ाये गए। लेकिन हंस कहीं हो तब मिले न! राजा ने अड़ोस-पड़ोस के शहरों-कस्बों में भी सूचना कराई कि अगर कोई हंस का पता लगा सके तो राज्य की ओर से उसे बहुत बड़ा पुरस्कार दिया जायगा।

   दस-बीस दिन निकल गये। कुछ भी पता नहीं लग सका। चूंकि वह हंस राजा ओर रानी को बहुत प्रिय था, अत: वे उदास रहने लगे। एक दिन एक कुटनी राजा के पास आई और बोली कि वह हंस का पता लगा सकती है, लेकिन उसे थोड़ा-सा समय चाहिए।

   राजा ने कहा, "मेरे राज्य के पंडित-जयोतिषी, हाकिम-हुक्काम और मेरे इतने सारे गुप्तचरों में कोई भी पता नहीं लगा सका, तुम कैसे पता लगा सकोगी?"

   कुटनी ने कहा, "मुझे अपनी योग्यता पर विश्वास है। अगर अन्नदाता का हुक्म हो तो एक बार आकश के तारे भी तोड़कर ले आऊं। आप मुझे थोड़ा-सा समय दीजिए और आवश्यक धन दे दीजिय। उसे वापस ला सकूं या नहीं, लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाती हूं कि उसका अता-पता आवश्य ले आऊंगी।"

   राजा ने स्वीकार कर लिया और कुटनी अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए चल पड़ी।

   सबसे पहले कुटनी ने यह पता लगाया कि शहर के धनिक घरों में कौन-कौन स्त्री गर्भवती हैं। उसे पता था कि गर्भावस्था में किसी स्त्री को यदि हंस का मांस मिल जाय तो वह बिना खाये नहीं रहेगी। साथ ही यह भी जानती थी कि साधारण घर की कोई स्त्री राजा का हंस पकड़ने का साहस नहीं कर सकती।

   खोजते-खोजते उसे पता लगा कि दीवान की पुत्रवधू गर्भवती है। अत: उसके मन में संदेह हो गया कि हो सकता है, राजा का हंस उड़ते-उड़ते किसी दिन इनके घर की छत पर आ गया हो और गर्भावस्था में होने के कारण लोभवश यह स्त्री उसे खा गई हो।

   कुटनी ने सोचा, किसी भी स्त्री के साथ निकटस्थ मैत्री करने के लिए उसके पीहर के हालचाल जानना आवश्यक है। इसलिए कुटनी उसके पीहर के गांव पहुंची। वहां जाकर उसने पीहरवाले सारे लोगों के नाम-धाम तथा उनके घर में बीती हुई खास-खास पुरानी घटनाओं की जानकारी ली। उसे पता लगा कि दीवानजी की पुत्रवधू की बूआ छोटी उम्र में ही किसी साधु के साथ चली गई थी और आज तक लौटकर नहीं आई है। उसने सोचा, अब दीवानजी के घर जाकर उनकी पुत्रवधू की बुआ बनकर भेद लेने का अच्छा अस्त्र अपने हाथ आ गया।

   वह दीवनजी के घर गई। उनकी पुत्रवधू के साथ बहुत स्नेह-ममत्व की बात करने लगी और बोली, "बेटी, मैं तेरी बुआ हूं। हम दोनों आज पहली बार मिली हैं। तुम जानती ही हो कि मैं तो बहुत पहले घर छोड़कर एक साधु के साथ चली गई थी। हाल ही में घर लौटकर आयी और भाई से मिली तो उसने बताया कि तुम यहां ब्याही गई हो और तुम्हारे ससुर राज्य के दीवान हैं। यह जानकर मन में तुमसे मिलने की बहुत उत्कंठा हुई तो यहां चली आई। तुम्हें देखकर मेरे मन में बहुत ही हर्ष हुआ। भगवान तुम्हें सुखी रखें और तुम्हारी कोख से एक कांतिवान तेजस्वी पुत्र पैदा हो। मैं परसों वापस जा रही हूं और तुम्हारे लड़का होने के बाद भाई-भाभी को साथ लेकर बच्चे को देखने और उसका लाड़-चाव करने यहां आऊंगी।"

   दीवान की पुत्रवधू ने अपने भोलपन के कारण उसकी बातों का विश्वास कर लिया और बोली, "बुआजी, आप आई हैं तो दस-बीस दिन तो यहां रहिए। जाने की इतनी जल्दी भी क्या पड़ी है!"

   बुआ बनी हुई कुटनी को और क्या चाहिए था! उसने वहां रहना स्वीकार कर लिया। थोड़े ही दिनों में बुआ-भतीजी खूब हिल-मिल गईं। एक दिन बातों-ही बातों में बुआजी ने कहा, "बेटी, गर्भावस्था में किसी स्त्री को अगर हंस का मांस खाने को मिल जाय तो बहुत अच्छा परिणाम निकलता है। उसके प्रभाव से होनेवाली संतान बहुत ही तेजस्वी और कांतिवान होती है, किंतु हंस तो मानसरोवर छोड़कर और कहीं होते नहीं, इसलिए यह काम पार पड़े तो कैसे पड़े!"

   यह सुनकर उसने अपने हंस खाने की बात बुआजी को सहजभाव से बता दी। सुनकर बुआ ने कहा, "बेटी, यह अचरज की बात है कि तुम्हारे यहां राजा के पास ह

ंस था! तुमने जो कुछ किया, वह बहुत अच्छा किया; किन्तु तुम्हें किसी के सामने इस घटना का जिक्र नहीं करना चाहिए। मेरे सामने भी नहीं करना था। लेकिन खैर, मुझसे कही हुई बात तो कहीं जाने वाली नहीं है, इसलिए जिक्र कर दिया तो भी कोई बात नहीं!"

   कुछ दिन और बती गये, तब कुटटनी ने कहा, "बेटी, अगर भगवान के सामने तुम हंस खाने की बात स्वीकार कर लो तो हंस की हत्या का पाप तो सिर से उतर ही जायगा, सुपरिणाम भी द्विगुणित होगा। मंदिर के पुजारी से कह कर मैं ऐसी व्यवस्था कर दूंगी कि जिस वक्त वहां तुम सारी घटना बता कर अपराध स्वीकार करो, उस वक्त पुजारी भी वहां नहीं रहे तथा और भी कोई न रहे, हम दो ही रहेंगी।"

   उसने ऐसा करना स्वीकार कर लिया।

   कुटनी लुक-छिप कर राजा के पास पहुंची और बोली, "आपसे वायदा किया था, उसके अनुसार हंस का अता-पता लगा लाई हूं।" ऐसा कहकर उसने सारी घटना राजा को बताई।

   राजा ने कहा, "इसका प्रमाण क्या है?"

   वह बोली, "फलां दिन आप मंदिर में आ जाएँ और हंस खाने वाली स्त्री की स्वीकारोक्ति स्वयं अपने कानों सुन लें।"

   राजा ने ऐसा करने की "हां" भर ली।

   नियत दिन समय से कुछ पहले पूर्व-योजना के अनुसार कुटनी ने राजा को एक जरा ऊंचे स्थान पर रखे हुए एक बड़े-से ढोल में छिपा दिया और बुआ-भतीजी मंदिर पहुंचीं।

   मंदिर का पट खुला था। पुजारी या और दूसरा कोई भी व्यक्ति वहां नहीं था। अब बुआजी ने शुरू किया, "हां, तो बेटी क्या बात हुई थी उस दिन?"

   दीवान की पुत्रवधू ने घटना आरम्भ की। वह थोड़ी-सी घटना ही कह पाई थी कि कुटनी ने सोचा, राजा ध्यानपूर्वक सुन तो रहा है न, इसलिए वह ढोल की तरफ इशारा करके बोली, "ढोल रे ढोल, सुन रे बहू का बोल।"

   उसका इतना कहना था कि भतीजी का माथा ठनका। उसे वहम हो गया कि हो न हो, दाल में कुछ काला है। मालूम होता है, मैं तो ठगी गई हूं। वह चुप हो गई।

   बुआ बोली, "हां तो बेटी, आगे क्या हुआ?"

   इस पर भतीजी बोली, "उसके बाद तो बुआजी मेरी आंख खुल गयी, सपना टूट गया।"

   ज्योंही भतीजी की आंख खुली, त्योंही बुआजी की आंखें भी खुली-की-खुली रह गईं। उसके पांव तो भतीजी से भी भारी हो गये और उसके लिए उठकर खड़े होना भी मुश्किल हो गया।



   1
0 Comments